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आलोचना

बाल कविताएँ और जीवन राग

शत्रुघ्न कुमार मिश्र


बाल साहित्य का विविध रूप साहित्य की लगभग सभी विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि में व्यक्त किया गया है तथा बाल साहित्य का महत्व हिंदी के साहित्यकारों में रचा-बसा है। बाल साहित्य का प्राचीनतम विपुल क्षेत्र कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया गया है। सूरदास जैसा महान कवि कृष्ण की बाल लीलाओं का जैसा जीवंत वर्णन करता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सूर के यहाँ वात्सल्य का भाव लिए हुए कविता की आत्मा कृष्ण की बाल लीलाओं का विशद् वर्णन करती है। सूर, तुलसी आदि मध्यकालीन कवि देवत्व कृष्ण, राम के बाल स्वरूप और बालक के क्रिया-कलापों का सौंदर्यात्मक रूप प्रस्तुत करते हैं। बाल साहित्य का महत्व आधुनिक युग में तब बढ़ गया जब देश महामारी, अकाल और पूँजीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ता गया। संवेदनशीलता के पतन के इस दौर में बाल साहित्य अत्यंत जरूरी हो जाता है। आधुनिक युग में बालकों के प्रति हिंसा उनके साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार व गैर जिम्मेदाराना रवैये की खबरें लगातार आती रही हैं। बालक सौंदर्य और सुंदरता का प्रतीक होते हैं। बाल साहित्य का तात्पर्य ऐसे साहित्य से है जो बालकों के लिए लिखा गया हो और जिसका उद्देश्य बालकों का मनोरंजन करना उनमें सामाजिक संस्कार भरना व उन्हें कर्तव्यवान बनाने की प्रेरणा देता हो। शिक्षाप्रद कहानियाँ, पुण्य महापुरुषों का स्मरण, वीरता के किस्से आदि घटनाओं को पढ़-सुनकर बालकमन पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह अपने समाज व भविष्य को इनके माध्यम से गढ़ता है। मगर बालक ही जब सामाजिक व्यवस्था में हाशिया हो जाए तो उसका व्यक्तित्व क्या कर निर्मित हो सकेगा। इतिहास में विदित है कि कबीर को भी उनके माँ-बाप तालाब किनारे छोड़ कर चले गए थे और पश्चात् में कबीर क्रांति की आवाज बने किंतु ऐसे उदाहरण विरले मिलते हैं। कर्ण जैसे महापुरुष को भी जन्म के साथ ही त्याग दिया गया था किंतु वह इतिहास का महत्वपूर्ण व्यक्ति बना। लावारिस होने का अभिशाप, नाजायज होने को अभिशाप आज के दौर के बालकों को भी उठाना पड़ता है। एक अनाथ बालक जिसका जन्म सभ्य सामाजिक परिवार में नहीं होता उसे हरामी जैसे शब्दों से बुलाया जाता है। हमारे समाज में बाल मजदूरी, बालकों को गुलाम बनाना तथा उन पर यौन अत्याचार यह बातें कितनी तकलीफदेह है एक सभ्य समाज में, ऐसे में राजेश जोशी की एक कविता 'बच्चे काम पर जा रहे हैं' अनायास ही याद आती है -

बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?

हमारे समय में यह निश्चित तौर पर भयावह और गैर संवेदनशील घटनाओं में एक है। बालकों का ऐसा समय जिनमें वह अपने भविष्य का निर्माण कर सकते हैं तब वे भुखमरी, तंगहाली व हालात के अन्य कारणों के कारण अपनी उम्र के तिगुने कठिन कार्य करने के लिए बाध्य हैं। मध्यकालीन बालकों का सौंदर्याभास हमें आकर्षित करता है तो आधुनिक युगीन कविता इसे दारुण प्रसंग बना देती है। हमारे समय की सच्चाई है यह जब हम दुनिया के बाजार में अपने चारो तरफ मजदूरों की शक्ल में बालकों को देख रहे हैं। भुखमरी, कुपोषण, तंगहाली और गरीबी की वजह से लाखों बच्चों का जीवन और भविष्य मर जाता है।

बाल साहित्य का जीवन राग उनके मस्तिष्क का सकारात्मक विकास करता है। प्राचीन काल से प्रचलित है कि कोई अशोभनीय कार्य या घृणित घटनाएँ बालकों के समक्ष घटित न हों इससे उनके मन व मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बालकमन स्वभाव से कोमल होता है और उनकी आत्मा का मूल तत्व सौंदर्य ही होता है। दुनियादारी, सामाजिक समस्याएँ बाल साहित्य का विषय नहीं होती। बाल साहित्य में मुख्यतः मनोरंजन, शिक्षाप्रद कहानियाँ, वीरता के किस्से आदि जीवन निर्माण में सहायक घटनाओं का वर्णन होता है। हिंदी साहित्य में बाल साहित्य को लेकर तमाम कवियों ने बालकों पर कविताएँ लिखी हैं और बाल साहित्य को समृद्ध और सर्जनात्मक बनाया है।

बाल साहित्य का क्षेत्र साहित्य की दुनिया में भले ही अन्य विधाओं की तरह चर्चित न रहा हो लेकिन यह विधा अपनी संपूर्णता के साथ कविता और अन्य विधाओं में मौजूद रही है। श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल द्विवेदी, महादेवी वर्मा, प्रकाश मनु, दिविक रमेश जैसे साहित्य के सरीखे रचनाकारों ने श्रेष्ठ बाल कविताएँ लिखी हैं। अमीर खुसरों की पहेलियाँ व मुकरियाँ भी बालकों के ज्ञान के लिए उपयोगी साहित्य है। बुद्धि में पैनापन व सूक्ष्म दृष्टि से सोचने व समझने की शक्ति खेल-खेल में पहेलियों के ही माध्यम से उत्पन्न होती है। अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं एवं खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य प्रियप्रवास के रचयिता हैं। इन्होंने बालकों के लिए श्रेष्ठ बाल कविताएँ लिखी हैं। 1915 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित 'जागो प्यारे' कविता लगभग भारतीय माताएँ अपने पुत्र को जगाने के लिए कहती हैं तथा यह गीत भारतीय माताओं की जबान पर रहता है। इस कविता की व्यंजकता बालकमन पर एक सौंदर्य व कर्तव्यनिष्ठा का भाव पैदा करती है -

उठो लाल अब आँखे खोलो
पानी लाई हूँ मुँह धो लो
बीती रात कमल दल फूले
उनके ऊपर भँवरे डोले।

इस कविता की आखिरी पंक्ति में हरिऔध जी बालकों को समय का महत्व बताते हुए कहते हैं सोते हुए, प्रभात का अध्ययनशील समय बालकों को नही खोना चाहिए -

ऐसे सुंदर समय न खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ।

बच्चों के संदर्भ में हरिऔध की कोयल कविता अत्यंत प्रासंगिक है, कोयल मीठी जुबान बोलती है और हरिऔध भी बालकों को मीठा बोलने का संदेश देते हैं। कोई भी बालक बड़ा होकर तभी अपने समाज के लिए अच्छा बन सकेगा जब यह वह उत्तम बोली का आचरण करेगा -

जो पंचम सुर में गाती है
वह ही कोयल कहलाती है।
लड़कों जब अपना मुँह खोलो
तुम भी मीठी बोली बोलो
इससे कितने सुख पाओगे
सबके प्यारे बन जाओगे।

श्रीधर पाठक की कविताएँ प्रकृति व सौंदर्य का रूप लिए रहती हैं। प्रकृति ही उनका मुख्य वर्ण्य विषय है। लोक और समाज की सौंदर्यात्मक वस्तुएँ उनकी बाल कविताओं में निखर जाती हैं। उनकी कविता 'उठो भाई उठो' इस दृष्टि से पठनीय है -

हुआ सवेरा जागो भैया
खड़ी पुकारे प्यारी मैया
हुआ उजाला, छिप गए तारे
उठो मेरे नयनो के तारे।

श्रीधर पाठक ने अपनी एक बाल कविता 'देल छे आए' में बालकों की भाषा का भी सुंदर प्रयोग किया है। छोटे बालक अक्सर तुतलाते हुए उलाहना देते हैं इस तुतलाने को कवि ने कविता की भाषा बनाकर बालकमन को छुआ है -

बाबा आज देल छे आए
चिज्जी-पिज्जी कुछ ना लाए
बाबा क्यों नहीं चिज्जी लाए
इतनी देली छे क्यों आए?

रामधारी सिंह दिनकर जैसे ओजपूर्ण भाषा के कवि ने भी बाल कविताएँ लिखी हैं। इनकी बाल कविताएँ चाँद का कुर्ता, चूहे की दिल्ली यात्रा बच्चों की जुबान पर रहती हैं। चाँद का कुर्ता कविता में बालक चाँद अपनी माँ से अपने घटते-बढ़ते हुए आकार की उलाहनापूर्ण ढंग से शिकायत करता है। जिसके कारण उसे एक नाप के कपड़े रोज नहीं होते और ठंड की रातों में उसे जाड़ा लगता है -

हार कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।
चाँद की उलाहना सुनकर माता सुंदर शब्दों में कहती है -
घटता बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की आँखों को दिखलायी पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज लिवाएँ
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए।

चूहे की दिल्ली यात्रा दिनकर की प्रसिद्ध बाल कविता है, यह बाल कविता भारत की आजादी और महात्मा गांधी के विचारों को बालकमन को हलके से छू जाती है। आजाद होना दुनिया की खुशी पा लेने जैसा होता है और यह कविता मनोरंजन के साथ बच्चों के लिए अर्थवान भी है। कविता में बिल्ली अकर्मण्यता की प्रतीक है उनके समान जो बिना मेहनत किए दूसरों के सामान को लूटते हैं और आमजन को परेशान करते हैं -

बिल्ली एक बड़ी पाजी है रहती घात लगाए,
जाने वह कब किसे दबोचे, किसको चट कर जाए
सो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली
आजादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।
चूहे के माध्यम से दिनकर ने आजादी की बहुत सुंदर व्याख्या की है -
गांधी युग में कौन उड़ाए चूहों की खिल्ली
आजादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।

महादेवी वर्मा ने भी कुछ श्रेष्ठ बाल कविताएँ लिखी हैं। उनकी कविताओं का मुख्य विषय भावना प्रधान है और उनकी बाल कविताओं में एक माँ का हृदय भी उपस्थित रहता है। उनकी एक कविता 'अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी' में एक स्त्री मन व उसका स्वावलंबन तथा बच्चों की सहज जिज्ञासा का भाव पठनीय है -

आँधी आई जोर शोर से
डालें टूटी हैं झकोर से
उड़ा घोंसला अंडे फूटे
किससे दुख की बात कहेगी।

इस दृश्य को देखकर बच्चों के मन में निम्न भाव आता है -

घर में पेड़ कहाँ से लाएँ
कैसे यह घोंसला बनाएँ
कैसे फूटे अंडे जोड़ें,
किससे यह सब बात कहेगी
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी।

हिंदी कविता में बारहमासा का वर्णन विरह की दारुण अवस्था को व्यक्त करने के लिए कवियों ने प्रयुक्त किया हैं किंतु महादेवी वर्मा ने बारहमासा का वर्णन बालकों को बारहमास के प्राकृतिक सौंदर्य को दिखाते हुए किया है। इस बारहमासा में बालकों के सघन भाव व उनकी भावनाओं को महादेवी वर्मा ने व्यक्त किया है कार्तिक मास व माघ मास का वर्णन बालकमन को आकर्षित करता है -

दिये तेल सब रामा लाया
हमने मिल बत्तियाँ बनाई
कातिक में लक्ष्मी की पूजा
करके दीपावली जगाई। (कार्तिक मास)
माघ मास सर्दी के दिन हैं
नहा नहा हम काँपे थर थर
पर ठाकुर जी कभी न काँपैं
उन्हें नहीं क्या सर्दी का डर। (माघ मास)

मैथिलीशरण गुप्त ने भी बाल कविताएँ लिखी हैं। 'माँ कह एक कहानी' शीर्षक कविता श्रेष्ठ बाल कविताओं में गिनी जाती है। यह कविता हिंदी की प्रतिनिधि बाल कविताओं में एक है जिसको पढ़कर बालकों के मन में न्याय, दया का भाव पैदा होता है। बालक की प्रथम शिक्षिका माँ ही होती है और वही अपने बेटे में संस्कार के गुण भरकर उन्हें गुणवान बनाती है। कविता में एक खग को बहेलिया मारता है किंतु एक व्यक्ति उसको प्राणदान देता है तो इस पक्षी पर किसका अधिकार हुआ। बालक ने कहानी सुनते हुए जवाब दिया -

कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।
माँ का हृदय इस उत्तर से संतुष्ट हो जाता है और वह कहती है -
"न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।''

गुप्त जी 'सर्कस' शीर्षक कविता बच्चों को घर बैठे ही सर्कस का आनंद देती है और उनमें मनोरंजन का भाव पैदा करती है किंतु इस कविता का मूल भाव भी दया है। सर्कस में पकड़े गए जानवर अपनी स्वच्छंदता को खो देते है और परवश हो जाते हैं -

मनुज सिंह की देख लड़ाई
की मैंने इस भाँति बड़ाई
किसे साहसी जन डरता है
नर नाहर को वश करता है।
यह सिंही का जना हुआ है।
किंतु स्यार यह बना हुआ है
यह पिंजड़े में बंद रहा है
नहीं कभी स्वच्छंद रहा है।

गुप्त जी के समय भारत गुलाम था और स्वच्छंदता, आजादी का महत्व वह जानते थे। उनकी बाल कविताओं में यह भाव पीड़ा न बनकर भावी पीढ़ी को आजादी का महत्व बताती है।

मुरारी लाल शर्मा 'बालबंधु' का 'शक्ति हमें दो' गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ। यह गीत कालांतर में प्रार्थना गीत बन गया और स्कूलों, विद्यालयों में बालक इसे गाते हैं। यह गीत बालकों में धर्म, दया, स्वाभिमान, परोपकार व अपने वतन पर मर मिटने का सात्विक भाव पैदा करता है -

वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जावें
पर सेवा में उपकार में हम, जग-जीवन सफल बना जावें।
निज आन बान, मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें।

हरिवंश राय 'बच्चन' सरीखे हालावाद और हिंदी कविता के प्रसिद्ध कवि ने भी बाल कविताएँ लिखी है इनकी बाल कविताएँ मनोरंजन के साथ-साथ कर्म का सौंदर्य भी लिए हुई हैं। उनकी कविता 'रुके न तू' बालकों के लिए निश्चित तौर पर एक कठिन लक्ष्य की ओर पग बढ़ाने का हौसला देती है -

रुके न तू, थके न तू
झुके न तू, थमे न तू
सदा चले, थके न तू
रुके न तू झुके न तू।

बच्चन की कविताएँ एक अलग मिजाज की हैं जो बाल सौंदर्य को प्रेरणास्त्रोत के तौर पर देखने का नजरिया देती हैं। गिलहरी, चींटी, कौआ आदि श्रमशील जंतुओं के रूपक के माध्यम से जीवन के कर्मशास्त्र को उजागर करने का सराहनीय प्रयास बच्चन ने अपनी बाल कविताओं में किया है। 'प्यासा कौआ' शीर्षक कविता बालकों में इन्हीं प्रेरणाओं को जन्म देती है -

उसने चोंच घड़े में डाली
पी न सका लेकिन पानी
पानी था अंदर, पर थोड़ा
हार न कौए ने मानी।

कौआ कंकड़ डाल-डाल कर पानी ऊपर उठा देता है और अपनी प्यास बुझाता है। बच्चन बच्चों को समझाते हुए कहते हैं -

बैठे घड़े के मुँह पर अपनी
प्यास बुझाई कौए ने
मुश्किल में मत हारो
बात सिखाई कौए ने।

श्रीप्रसाद बाल साहित्य की दुनिया में एक समर्पित रचनाकार हैं। उनका संपूर्ण साहित्य ही बच्चों को समर्पित है। बालकों के जीवन का एक सौंदर्य होता है जो श्रीप्रसाद की कविताओं में उपस्थित होता है। 'शोर मचाते बच्चे' कविता में बालकों का यह हाव-भाव उपस्थित है -

घर में आते, बाहर जाते
शोर मचाते बच्चे
किसी पेड़ के नीचे मिलकर
गाना गाते बच्चे।

श्रीप्रसाद जी के अतिरिक्त प्रकाश मनु, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, दिविक रमेश, अश्वघोष, अरविंद कुमार, रमेश तैलंग, प्रभुदयाल श्रीवास्तव, हरिकृष्ण देवसरे इत्यादि बाल साहित्य के समर्पित रचनाकार रहे हैं और लगातार उत्कृष्ट बाल साहित्य का सृजन इन्होंने किया है। प्रकाश मनु ने बाल साहित्य की दुनिया को लगातार समृद्ध किया है और अपनी कविताओं में बालपन को पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित किया है। 'आओ चाँद' शीर्षक कविता बाल मनोभावों और बालकों के मन में हमेशा आकर्षण का केंद्र रहे चाँद के साथ उनके रिश्तों को व्यक्त करता है -

जल्दी आओ भैया चाँद
ले लो एक रुपैया चाँद
कितने अच्छे लगते हो जी
सर्दी में तुम ठिठुर न जाना
कर लो एक मढ़ैया चाँद।

रमेश तैलंग ने भी श्रेष्ठ बाल कविताएँ लिखी हैं और अपनी रचनात्मकता से बाल साहित्य को समृद्ध किया है। बालपन की जिज्ञासा, सवाल, जवाब आदि उनकी कविताओं में सुंदर भाव में व्यक्त हुआ है -

उड़ा कबूतर ऊपर-ऊपर
कित्ते ऊपर? इत्ते ऊपर
नीचे कब तक आएगा
उड़कर जब थक जाएगा।

हिंदी साहित्य में बाल साहित्य की आलोचना का क्षेत्र भले ही बहस से बाहर रहा हो और श्रेष्ठ आलोचकों ने उस पर कलम न चलाई हो किंतु साहित्य की दुनिया में बाल साहित्य की उपस्थिति लगातार बनी रही है। यह परंपरा प्रारम्भ से लगातार अभी तक बनी हुई है। उदाहरण के तौर पर संस्कृत साहित्य का पंचतंत्र सदियों पुरानी रचना है मगर उसका महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। हिंदी में भी बाल साहित्य की उपस्थिति पुरजोर तरीके से हुई है। बाल साहित्य को समझते हुए हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि बालकों को केंद्र में रखकर जो बाल साहित्य लिखा गया है वह विशुद्ध रूप से बाल साहित्य नहीं है। उदाहरण के तौर पर सूर के बाल वर्णन के केंद्र में बालक श्रीकृष्ण तो हैं मगर उस कविता को खोल पाना कम उम्र के बालक के लिए आसान नहीं है। बाल साहित्य में मनोरंजकता, प्रकृति का सुंदर स्पर्श व शिक्षाप्रद भाव, हास्य आदि ही मुख्य वर्ण्य विषय हो सकते हैं। वह साहित्य जो बच्चे स्वयं पढ़ सके ओर उनके माध्यम से अपना जीवन निर्माण सत्यनिष्ठता, ईमानदारी व परोपकार के माध्यम से कर सकें उसका महत्वपूर्ण माध्यम बाल साहित्य ही है।

निश्चित तौर पर बाल साहित्य में भविष्य की भावी पीढ़ियों के सृजन की क्षमता है।


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